Saturday, 23 May 2020

कोरोना से जंग हेराफेरी के संग!



दोस्तों,
मै और मेरे दोस्त हेराफेरी मूवी के स्टाइल में छोटे छोटे विडीयो ले कर आए हैं। कोरोना अवेरनेस के मेसेज पढने से लोग बोर हो गये है। तो हम "इन डायरेक्ट वे" में कुछ मेसेज देना का प्रयास किया है वो भी बिलकुल हलके फुलके अंदाज में!

कोरोना से जंग अब भी जारी है; पर हेराफेरी के बाबुभैया, श्याम और राजु भारी है!

दोस्तो
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Monday, 18 May 2020

माँ तुझे सलाम!



नमस्ते स्नेही जन!
आप सब ने जन्मदिवस की शुभकामनाएं दी उसके लिए तहे दिल से शुक्रिया।

हर साल मैं भगवान के प्रति आभार व्यक्त करता हूं, साथ साथ ये भी प्रार्थना करता हूं की हमारे देश के वीर सैनिको की रक्षा करे जो हमारे लिए देश के हर कोने में डटे हुए हैं।

जन्मदिन पर शहीद वीर को  जितना ॠण चूका पाउं उतना कम! बस भगवान से यही प्रार्थना की सेना को शकित दे और हमें भी शक्ति दे की हम सेना के लिए, सैनिको के लिए कुछ कर पाएं।

ये पोस्ट मैं इस लिए नहीं  लिख रहा की 'देखो मैने हर साल कि तरह इस साल भी कितना बढीया काम किया आज के दिन!', पर इस लिए लिख रहा हूं की आप भी इस मुहीम में जुडीए। अपने जन्मदिन पर आप भी https://bharatkeveer.gov.in/ वेबसाइट पर अपना ॠण अदा करे।




शहीद वीर सत्यपाल सिंह बचु सिंह परमार को मेरा  और  समस्त देशवासीयो का शत शत नमन। राष्ट्र की सेवा करते हुए उन्होंने सर्वोच्च बलिदान दीया। देश आप की शहादत को याद रखेगा सत्यपाल सिंह जी।

मित्रो, आप भी वीर सैनिको की शहादत को याद रखीएगा और हो सके तो आप भी https://bharatkeveer.gov.in/  पर ॠण अदा करीएगा।



फीर से एक बार जन्मदिन की शुभकामनाएं देने के लिए धन्यवाद।
जय हिन्द... जय हिन्द की सेना!
वंदे मात्‌रम ! भारत माता की जय।

~ गोपाल खेताणी


Thursday, 7 May 2020

मेरा भारत महान – नाना फडनवीस

Nana Fadnavis. (Representative Pic: Wikimedia Commons)

अंग्रेज जिन्हें “मराठों का मैकियावेली” कहते थे वो थे पेशवा का बाहोश, बलवान और बेजोड मंत्री नाना फडनवीस जी।

१२ फरवरी १७४२ को बालाजी जनार्दन भानु का जन्म सतारा महाराष्ट्र में हुआ। सब लोग बालाजी को प्यार से “नाना” पुकारते थे।

नाना के दादा बालाजी महादजीने मुगलों से पेशवा को बचाने के लिए अपनी जान का बलिदान दे दिया। पेशवा की सिफारिश पर छत्रपति शाहूजी महाराजने उन्हे “फडनवीस” (अष्टप्रधान में से एक) की उपाधी प्रदान की।
नाना को ये उपाधी अपने दादाजी से प्राप्त हुइ।

मराठा साम्राज्य के चौथे पेश्वा माधवराव के लिए ना फडनवीसजी मंत्री के रुप में कार्य रत थे।
१७६१ में पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद, नाना फड़नवीसजी ने एक मंत्री के रूप में प्रमुखता से मराठों को अपनी प्रतिष्ठा और शक्ति हासिल करने में मदद की, जो पानीपत में युद्ध में काफी हद तक क्षीण हो चुकी थी।
उन्होंने राज्य के अन्य विश्वासपात्र मंत्रीयो के साथ मिलकर स्थिति को सही दिशा की ओर बढ़ाया और शासन प्रबंध को फिर से दुरुस्त करने में अहम भूमिका निभाई।

नाना फड़नवीसजी के दिशानिर्दोशों में मराठा सेना ने हैदराबाद के निजाम पर जीत हासिल की, जिसने मराठा साम्राज्य के सम्मान और प्रतिष्ठा को नया आयाम दिया।

पेशवा माधव राव की मौत के बाद उनके छोटे भाई नारायण राव पेशवा बने।
मगर नारायण राव अपने भाई के समान समझदार और धैर्यवान नहीं थे. ऐसे में बालाजी बाजीराव के भाई और नारायण राय के चाचा रघुनाथ राय के पास मौका था कि वह शासन पर कब्जा कर लें।
आखिर रघुनाथ राव खुद भी तो पेशवा बनना चाहते थे।

इसलिए उन्होंने पेशवा नारायण राय के विरुद्ध षडयंत्र रचने शुरु कर दिए. लेकिन रघुनाथ राव और पेशवा के बीच नाना फड़नवीस खड़े थे. इन्होंने एक-एक कर रघुनाथ राव की कई चालों को बेअसर कर दिया।
पर १७७३ में रघुनाथ राव ने एक साजिश के तहत नारायण राव की हत्या कर खुद पेशवा बन गए।
लेकिन दूसरी ओर नारायण राव की पत्नी गंगा बाई उस समय गर्भवती थी और नाना फड़नवीसजी चाहते थी कि उनका वारिस ही पेशवा बने।

इसलिए नाना फड़नवीसजी ने बारभाई काउंसिल का निर्माण किया। जिसके तहत उन्होंने अपने अलावा ११ अन्य मराठा सरदारों को एकत्रित किया, जो रघुनाथ के विरुद्ध थे।
बारभाई काउंसिलने रघुनाथ राव को पेशवा के पद से हटाकर 40 दिन के अंदर माधव राव द्वितीय को नया पेशवा नियुक्त कर दिया।
हालांकि, माधव राव केवल नाम के पेशवा थे, जबकि असल में शासन की कमान नाना फड़नवीसजी के हाथों में थी.

नाना फड़नवीसजी दूरदर्शी थे, वह इस बात से भलिभांति परिचित थे कि मराठों के सबसे बड़े दुश्मन अंग्रेजी और फ्रांसीसी व्यापारी हैं। इसलिए नाना फड़नवीसजी ने इन पर नजर रखने के लिए गुप्त जासूसों का एक विभाग बनाया, जो इनकी हर छोटी बड़ी गतिविधियों पर नजर रखता था।
लिहाजा, अंग्रेज भी जानते थे कि फड़नवीस उनके लिए बड़ा खतरा हैं और उनके रहते वह मराठा साम्राज्य को तोड़ नहीं सकते।
इसलिए उन्होंने कई बार फड़नवीसजी को बदलने की बात पेशवा के समक्ष रखी, मगर उन्हें कभी भी समर्थन नहीं मिला।

इसी बीच मराठा साम्राज्य के गद्दार शासक रघुनाथ राव ने एक बार फिर से पेशवा बनने की कोशिश की।
इसके लिए उसने अंग्रेजी सेना की मदद ली और मराठों पर हमला बोल दिया।
लेकिन नानाजी ने समझदारी दिखाते हुए निजाम और भोंसले से संधि कर ली. जिसके चलते युद्ध का अंत संधि के रूप में निकला।

साल १७८२ में मराठों और अंग्रेजों के बीच संधि हुई। सालबाई की सन्धि, मई 1782 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी और महादजी शिन्दे के बीच हुई थी।  महादजी शिंदे भी बेजोड मराठा सरदार थे। कइ पुस्तक में लिखा गया है की महादजी और नानाजी के बीच झगडा था पर इतिहास कुछ और ही कहता है। दो विलक्षण प्रतिभाओं के विचार अलग हो सकते है, मगर उनका लक्ष्य नहीं। तभी नानाजी और महादजीने मिलकर इतना बडा कार्य सफल कीया।

फ़रवरी १७८३ में पेशवा की सरकार ने इसकी पुष्टि कर दी थी। इसके फलस्वरूप १७७५  से चला आ रहा प्रथम मराठा युद्ध समाप्त हो गया।सन्धि की शर्तों के अनुसार साष्टी टापू अंग्रेज़ों के अधिकार में ही रहा।
अंग्रेज़ों ने राघोवा (रघुनाथ राव) का पक्ष लेना छोड़ दिया और मराठा सरकार ने इसे पेंशन देना स्वीकार कर लिया। अंग्रेज़ों ने माधवराव नारायण को पेशवा मान लिया और यमुना नदी के पश्चिम का समस्त भू-भाग महादजी शिन्दे को लौटा दिया। अंग्रेज़ों और मराठों में यह सन्धि २० वर्षों तक शान्तिपूर्वक चलती रही।

१७९५ में उसने मराठा संघ की सम्मिलित सेनाओं का निज़ाम के विरुद्ध संचालन किया और खर्दा के युद्ध में निज़ाम की पराजय हुई। फलस्वरूप निज़ाम को अपने राज्य के कई महत्त्वपूर्ण भूभाग मराठों को देने पड़े।
१३ मार्च, १८०० में नाना फड़नवीसजी की मृत्यु हो गई और इसके साथ ही मराठों की समस्त क्षमता, चतुरता और सूझबूझ का भी अंत हो गया।

नाना फड़नवीसजी ने कभी किसी पद या उपाधि की कामना नहीं की। उनकी रुचि केवल मराठा साम्राज्य की प्रगति में थ। जब-जब राज्य में अस्थिरता आई नाना फड़नवीसजी ने हालातों पर काबू पाया और उन्हें फिर से स्थिर किया।

इतिहास के पन्नो पे नाना फडनवीसजी का नाम सुनहरे अक्षर में अंकित रहेगा।

~ गोपाल खेताणी

Tuesday, 5 May 2020

अग्नि की ऊड़ान - श्री ए.पी.जे अब्दुल कलाम

पुस्तक परिचयः अग्नि की ऊड़ान
लेखकः भारत के अब तक सर्वाधीक चहीते राष्ट्रपति एवम्‌ मिसाइल मेन श्री ए.पी.जे अब्दुल कलाम (लेखन सहयोगः अरुण कुमार तिवारी)
WINGS OF FIRE का हिन्दी अनुवाद आर्येंद्र उपाध्याय


लिडर वो है जो निष्फलता अपने कंधो पे लेता है, और सफलता अपनी टिम के सभ्यो में बांट देता है ये हमें कलाम जी के आचरण से शिखना चाहिए।

ए.पी.जे अब्दुल कलाम ऐसी विराट प्रतिभा है की अगर वे जब लिखे तो हर एक शब्द हमारे मन मस्तिष्क में अंकित हो जाए। कलामजीने अपने बचपन से लेकर जब वो ६० साल के हुए तब तक के अपने जिवन सफर का दर्शन इस पुस्तक के माध्यम से करवाया है।

कलाम जी का जन्म आर्थिक रुप से साधारण लेकन आध्यात्मिक विचारो से असाधारण परिवार में रामेश्वरम में हुआ था। कलामजी अपने पिता और उनके विचारो से प्रभावीत थे। और क्युं ना हो, पुस्तक में कलामजी के पिताजी, जो अपने सुंदर विचार बालक कलाम को सुनाते है वो हमें भी प्रभावित करते है।

जैसे की
“जब संकट या दुःख आए तो उनका कारण जानने की कोशीश करो। विपत्ती हमेशा आत्मविश्लेषण के अवसर प्रदान करती है।“

कलामजी और उनके बहनोइ जलालुदीन, जो उनसे उम्र में काफी बडे थे वो उनके अच्छे मित्र बने, जब घूमने निकलते थे तो शिवमंदीर की प्रदक्षीणा भी करते थे। धर्मनिरपेक्षता का इससे बडा उदाहरण क्या होगा?
जलालुदीनने ही कलामजी को पढने के लिए प्रोत्साहीत किया।

दूसरे प्रोत्साहक थे कलामजी के चचेरे भाई शम्शुदीन जो न्यूझ पेपर एजंसी चलाते थे, जिनके साथ बचपन में कलामजी ने काम किया। कलाम जी की मां और दादी बच्चों को रामायण एवम्‍ पैगंबर साहब की कहानिया सुनाती थी इसका असर थी कलामजी के जिवन पे पडा है।

विग्यान के उनके शिक्षक जो शिव सुब्रह्मण्य अय्यर जो एक सनातनी ब्राह्मण थे उन्होंने कलामजी को खाने पे बुलाया और उनके साथ खाना खाया, ये बात का भी बाल कलाम के मन पे आजिवन असर रहा।

रामेश्वरम से बाद में कलाम जी रामनाथपुरम पढने गये। और फिर वहां से त्रीची। यहां पर कलामजी को भौतिकशास्रमें रूची होने लगी। पर तुंरत ही कलामजी को ग्यान हुआ को उन्हें इंजिनियरींग में जान चाहिये था। MIT में एडमिशन तो मिला लेकिन फिस के लिए पैसे नहीं थी तब कलाम जी की बहनने अपने गहने बेच दिये और उन पैसो से कलामजी फिस दे पाए।

यहां पर कलाम जी ने रसप्रद शब्दो में अपने बचपन, कोलेज काल और तकनिकी ग्यान का वर्णन किया है। कोलेज के बाद कलामजी ने HAL जोइन किया और एक इंन्टर्व्यु के तहत दिल्ही और देहरादून गये। वहां से रुषीकेश गये और स्वामी शिवानंद से मिले। वह प्रसंग़ अद्भूत है। आगे कलामजी ने अपने काम, अपने जिवने के सफर, तकनीकी ज्ञान का विवरण दिया है पर साथ साथ कलामज की आध्यात्मिक विचार का आलेखन जो हुआ है वो हमारे दिल को छू जाता है।

होवर क्राफ्ट के अनुभवो से होते हुए कलामजी कैसे डो. साराभाइ से मिलते है वह विवरण सभी के लिए मार्गदर्शक है।

दुर्भाग्यवश हमारे देश में सिर्फ “हिरो” और “झिरो” है, जिनके बिच एक बडी विकट विभाजन रेखा है।इस स्थिति को बदलना जरूरी है ऐसा कलामजी का मानना था जब भारत की आबादी ९५ करोड थी।

नासा से आने  के बाद कैसे रोकेट, उपग्रह और मिसाइल तकनिक पे काम हुआ वो आसान शब्दो में कलामजी ने समजाय है।साथ में अपने अनुभव को साझा करते हुए कइ सिख भी प्रदान की है।

एस एल वी कि प्राथमिक निष्फलता, संघर्ष इन सभी अनुभवो को कलामजीने साझा किया है वैसी मुसिबते या इससे कम मुसीबते हमारे जिवन में आती है तब हमें कैसे लडना है वो कलामजी के शब्दो से हमें पता चलता है।
एस एल वी के बाद प्रुथ्वी, त्रीशुल, अग्नि मिसाइल के संशोधन और सफलता के विवरण के साथ कलामजी आध्यात्मिक विवरण भी आप को किताब पढने में विवश कर देता है।

विज्ञान में थोडी भी रूची रखने वाले पाठक इस पुस्तक को बडे चाव से पढेंगे ये मेरा मानना है।
वैसे भी सब से चहिते राष्ट्रपति के इस आत्मकथानक समान पुस्तक को कौन पढना नहीं चाहेगा?



~ गोपाल खेताणी

परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद

अब्दुल हमीद   का जन्म  1 जुलाई , 1933 को   यूपी के गाजीपुर जिले के धरमपुर गांव में   हुआ था।   उनके पिता मोहम्मद उस्मान सिलाई का काम करते थे...