Thursday 7 May 2020

मेरा भारत महान – नाना फडनवीस

Nana Fadnavis. (Representative Pic: Wikimedia Commons)

अंग्रेज जिन्हें “मराठों का मैकियावेली” कहते थे वो थे पेशवा का बाहोश, बलवान और बेजोड मंत्री नाना फडनवीस जी।

१२ फरवरी १७४२ को बालाजी जनार्दन भानु का जन्म सतारा महाराष्ट्र में हुआ। सब लोग बालाजी को प्यार से “नाना” पुकारते थे।

नाना के दादा बालाजी महादजीने मुगलों से पेशवा को बचाने के लिए अपनी जान का बलिदान दे दिया। पेशवा की सिफारिश पर छत्रपति शाहूजी महाराजने उन्हे “फडनवीस” (अष्टप्रधान में से एक) की उपाधी प्रदान की।
नाना को ये उपाधी अपने दादाजी से प्राप्त हुइ।

मराठा साम्राज्य के चौथे पेश्वा माधवराव के लिए ना फडनवीसजी मंत्री के रुप में कार्य रत थे।
१७६१ में पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद, नाना फड़नवीसजी ने एक मंत्री के रूप में प्रमुखता से मराठों को अपनी प्रतिष्ठा और शक्ति हासिल करने में मदद की, जो पानीपत में युद्ध में काफी हद तक क्षीण हो चुकी थी।
उन्होंने राज्य के अन्य विश्वासपात्र मंत्रीयो के साथ मिलकर स्थिति को सही दिशा की ओर बढ़ाया और शासन प्रबंध को फिर से दुरुस्त करने में अहम भूमिका निभाई।

नाना फड़नवीसजी के दिशानिर्दोशों में मराठा सेना ने हैदराबाद के निजाम पर जीत हासिल की, जिसने मराठा साम्राज्य के सम्मान और प्रतिष्ठा को नया आयाम दिया।

पेशवा माधव राव की मौत के बाद उनके छोटे भाई नारायण राव पेशवा बने।
मगर नारायण राव अपने भाई के समान समझदार और धैर्यवान नहीं थे. ऐसे में बालाजी बाजीराव के भाई और नारायण राय के चाचा रघुनाथ राय के पास मौका था कि वह शासन पर कब्जा कर लें।
आखिर रघुनाथ राव खुद भी तो पेशवा बनना चाहते थे।

इसलिए उन्होंने पेशवा नारायण राय के विरुद्ध षडयंत्र रचने शुरु कर दिए. लेकिन रघुनाथ राव और पेशवा के बीच नाना फड़नवीस खड़े थे. इन्होंने एक-एक कर रघुनाथ राव की कई चालों को बेअसर कर दिया।
पर १७७३ में रघुनाथ राव ने एक साजिश के तहत नारायण राव की हत्या कर खुद पेशवा बन गए।
लेकिन दूसरी ओर नारायण राव की पत्नी गंगा बाई उस समय गर्भवती थी और नाना फड़नवीसजी चाहते थी कि उनका वारिस ही पेशवा बने।

इसलिए नाना फड़नवीसजी ने बारभाई काउंसिल का निर्माण किया। जिसके तहत उन्होंने अपने अलावा ११ अन्य मराठा सरदारों को एकत्रित किया, जो रघुनाथ के विरुद्ध थे।
बारभाई काउंसिलने रघुनाथ राव को पेशवा के पद से हटाकर 40 दिन के अंदर माधव राव द्वितीय को नया पेशवा नियुक्त कर दिया।
हालांकि, माधव राव केवल नाम के पेशवा थे, जबकि असल में शासन की कमान नाना फड़नवीसजी के हाथों में थी.

नाना फड़नवीसजी दूरदर्शी थे, वह इस बात से भलिभांति परिचित थे कि मराठों के सबसे बड़े दुश्मन अंग्रेजी और फ्रांसीसी व्यापारी हैं। इसलिए नाना फड़नवीसजी ने इन पर नजर रखने के लिए गुप्त जासूसों का एक विभाग बनाया, जो इनकी हर छोटी बड़ी गतिविधियों पर नजर रखता था।
लिहाजा, अंग्रेज भी जानते थे कि फड़नवीस उनके लिए बड़ा खतरा हैं और उनके रहते वह मराठा साम्राज्य को तोड़ नहीं सकते।
इसलिए उन्होंने कई बार फड़नवीसजी को बदलने की बात पेशवा के समक्ष रखी, मगर उन्हें कभी भी समर्थन नहीं मिला।

इसी बीच मराठा साम्राज्य के गद्दार शासक रघुनाथ राव ने एक बार फिर से पेशवा बनने की कोशिश की।
इसके लिए उसने अंग्रेजी सेना की मदद ली और मराठों पर हमला बोल दिया।
लेकिन नानाजी ने समझदारी दिखाते हुए निजाम और भोंसले से संधि कर ली. जिसके चलते युद्ध का अंत संधि के रूप में निकला।

साल १७८२ में मराठों और अंग्रेजों के बीच संधि हुई। सालबाई की सन्धि, मई 1782 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी और महादजी शिन्दे के बीच हुई थी।  महादजी शिंदे भी बेजोड मराठा सरदार थे। कइ पुस्तक में लिखा गया है की महादजी और नानाजी के बीच झगडा था पर इतिहास कुछ और ही कहता है। दो विलक्षण प्रतिभाओं के विचार अलग हो सकते है, मगर उनका लक्ष्य नहीं। तभी नानाजी और महादजीने मिलकर इतना बडा कार्य सफल कीया।

फ़रवरी १७८३ में पेशवा की सरकार ने इसकी पुष्टि कर दी थी। इसके फलस्वरूप १७७५  से चला आ रहा प्रथम मराठा युद्ध समाप्त हो गया।सन्धि की शर्तों के अनुसार साष्टी टापू अंग्रेज़ों के अधिकार में ही रहा।
अंग्रेज़ों ने राघोवा (रघुनाथ राव) का पक्ष लेना छोड़ दिया और मराठा सरकार ने इसे पेंशन देना स्वीकार कर लिया। अंग्रेज़ों ने माधवराव नारायण को पेशवा मान लिया और यमुना नदी के पश्चिम का समस्त भू-भाग महादजी शिन्दे को लौटा दिया। अंग्रेज़ों और मराठों में यह सन्धि २० वर्षों तक शान्तिपूर्वक चलती रही।

१७९५ में उसने मराठा संघ की सम्मिलित सेनाओं का निज़ाम के विरुद्ध संचालन किया और खर्दा के युद्ध में निज़ाम की पराजय हुई। फलस्वरूप निज़ाम को अपने राज्य के कई महत्त्वपूर्ण भूभाग मराठों को देने पड़े।
१३ मार्च, १८०० में नाना फड़नवीसजी की मृत्यु हो गई और इसके साथ ही मराठों की समस्त क्षमता, चतुरता और सूझबूझ का भी अंत हो गया।

नाना फड़नवीसजी ने कभी किसी पद या उपाधि की कामना नहीं की। उनकी रुचि केवल मराठा साम्राज्य की प्रगति में थ। जब-जब राज्य में अस्थिरता आई नाना फड़नवीसजी ने हालातों पर काबू पाया और उन्हें फिर से स्थिर किया।

इतिहास के पन्नो पे नाना फडनवीसजी का नाम सुनहरे अक्षर में अंकित रहेगा।

~ गोपाल खेताणी

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