Monday, 30 October 2017

आज की नझ्म !

ये शहर मुझे पागल समझता है -- युवा कवि पल्लव श्रीवास्तव



जब जब उंगलियो को हवा मे घुमा कर तुझे यूं महसूस करता हूँ 
तब तब ये शहर मुझे पागल समझता है ।।
जब जब ये बारिश की बुन्दे छलक्ती है मैखाने मे
तब साकी से मांगता हूँ  पिला दे कोई 
जाम ऐसा की उतार जाये नशा उसका
तब तब ये शहर मुझे पागल समझता है ।।

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पल्लव श्रीवास्तव

Friday, 27 October 2017

आज की माइक्रोफिक्शन

कबाब में हड्डी

शांत पानी में टकटकी लगाये वो देख रहा था। वो भी पानी से उसको ललचा रही थी। आंखो आंखो में प्यार हो गया। वो हल्के से मुस्कुराया तभी अचानक..."छपाक"... मेंढक उछल के पानी में गीरा और वो चली गई। उसे इतना गुस्सा आया की मेंढक को मार ही डाले मगर जब नज़र बाजुओ पर गइ तो गुस्सा भाप बन के आंसुओ को सुलगाने लगा था।

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गोपाल खेताणी

Thursday, 26 October 2017

ये आज भी ज़िन्दा ही हैं..... जीवन - भूले बिसरे लोग! - सलिल दलाल

સલિલ કી મેહફિલ: ये आज भी ज़िन्दा ही हैं..... जीवन

उपर दि गइ लिंक पर क्लीक किजिए! ख्यातनाम फिल्म समिक्षक सलिलजी के ब्लोग का एक उत्तम लेख, कलाकार श्री जीवन के जीवन को दर्शाता हुआ।

आज की माइक्रोफिक्शन

हवा

"किधर?"
"बच्चों के लिए हवा बचाने जा रहा हुं।"
हाथ में नीम के पौधे ले के वो जा रहा था। सही मायनोमें वो अनपढ नहीं था!

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गोपाल खेताणी


Wednesday, 25 October 2017

आज की माइक्रोफिक्शन

वो

ट्रीगर पर रखी उंगली पे वो अपनी गर्म सांसे छोड रहा था। अंधेरेमें भी उसकी बाझ नजर किसी को ढूंढ रही थी। पास में बैठा कालु भी उर्जा बचाने अपनी जबान बहार कम ही नीकाल रहा था। दोनों को शिकार की तलाश थी।
कुछ गीरने की आवाझ आई। कालु झपका, अपनी पूंछ हिलाइ, जबान निकाली.. और इस चक्कर में नझर हटी । दुसरे दीन पुलिस को कुत्ता बेहोश मिला। लाश के हाथ में पिस्टल थी, छाती पर कातिलाना घाव, होठों पर मुस्कान और गालों पर लिप्स्टीक के निशान!

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गोपाल खेताणी

Tuesday, 24 October 2017

देवदास

कोलेज के दिन बडे सुहाने होते है। उन दिनो में कुछ ऐसे होर्मोन्स छलकते हैं की आप के अंदर छिपा कलाकार बाहर आ ही जाता है। मेरे कोलेज के दिनो में फिल्म आइ थी 'देवदास' (शाहरुख वाली)। फिल्म को देख के सब बिन पिये ही "घायल ह्रिदयी" हो गये थे। सो उन दिनो में मैंने भी अपने घायल दिल की सुनी और उनको लब्झों में बयां किया। (बांवरे पन में लिखी गई पंक्तिया आपके खिदमत में हाजिर है।)

कुछ तो था जोश जवानी का और कुछ तो था वो इश्की मौसम,
यारो दिल की दुनिया में था वो हमारा पहला कदम।

न थी दुनिया की परवाह न था किसी का डर,
अंजानी राह पर था अंजाना सा हमसफर।

बहुत सी कस्में ली और बरसों के वादे हुए,
इस बेगानी दुनिया में हम भी खूब बदनाम हुए।

पर न जाने कैसी बिज़ली गिरी और क्युं मेरा रब रूठा,
अपनों ही ने झख़्म दिये और दोनो का दिल तोडा।

न काम आया वो जोश जवानी का, न आया वो इश्की मौसम हम को राझ,
इस कम्बख्त इश्क ने बना दिया 'पारो', 'बेरिस्टर मुखर्जी' को ' देवदास'

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गोपाल खेताणी

परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद

अब्दुल हमीद   का जन्म  1 जुलाई , 1933 को   यूपी के गाजीपुर जिले के धरमपुर गांव में   हुआ था।   उनके पिता मोहम्मद उस्मान सिलाई का काम करते थे...