कोलेज के दिन बडे सुहाने होते है। उन दिनो में कुछ ऐसे होर्मोन्स छलकते हैं की आप के अंदर छिपा कलाकार बाहर आ ही जाता है। मेरे कोलेज के दिनो में फिल्म आइ थी 'देवदास' (शाहरुख वाली)। फिल्म को देख के सब बिन पिये ही "घायल ह्रिदयी" हो गये थे। सो उन दिनो में मैंने भी अपने घायल दिल की सुनी और उनको लब्झों में बयां किया। (बांवरे पन में लिखी गई पंक्तिया आपके खिदमत में हाजिर है।)
कुछ तो था जोश जवानी का और कुछ तो था वो इश्की मौसम,
यारो दिल की दुनिया में था वो हमारा पहला कदम।
न थी दुनिया की परवाह न था किसी का डर,
अंजानी राह पर था अंजाना सा हमसफर।
बहुत सी कस्में ली और बरसों के वादे हुए,
इस बेगानी दुनिया में हम भी खूब बदनाम हुए।
पर न जाने कैसी बिज़ली गिरी और क्युं मेरा रब रूठा,
अपनों ही ने झख़्म दिये और दोनो का दिल तोडा।
न काम आया वो जोश जवानी का, न आया वो इश्की मौसम हम को राझ,
इस कम्बख्त इश्क ने बना दिया 'पारो', 'बेरिस्टर मुखर्जी' को ' देवदास' ।
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गोपाल खेताणी