१८५७ का स्वतंत्रता संग्राम ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीयों द्वारा किया गया प्रथम
स्वातंत्र्य संग्राम था। यह भारत के विभिन्न क्षेत्रों में दो वर्षों तक चला। जनवरी
१८५७ तक इसने एक बड़ा रूप ले लिया। विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ
हुआ।
रामचंद्र पाण्डुरंग राव जिन्हे हम ‘तात्या टोपे’ के नाम से जानते हैं और जिन्हें
“महाराष्ट्र के बाघ” का बिरुद भी मिला है उनका आज (कथित तौर पे) बलिदान दिवस है।
छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी पेशवाओं ने उनकी विरासत को बड़ी सावधानी से सँभाला।
अंग्रेजों ने उनका प्रभुत्व समाप्त कर पेशवा बाजीराव द्वितीय को आठ लाख वार्षिक पेंशन
देकर कानपुर के पास बिठूर में नजरबन्द कर दिया। तात्याजी के पिता भी येवला से बिठुर
आ गये थे। रामचंद्र जिन्हे प्यार से लोग तात्या बुलाते थे उनका जन्म का साल १८१४ माना
जाता है। तात्याजी अपने आठ भाइ बहनो में सब से बडे थे।
तात्या को बाजिराव द्वीतिय से एक ‘टोपी’ मिली थी जो वो बडे चाव से पहनते थे। लोग
इसी लिए उन्हें तात्या टोपे बुलाते थे। कइ लोगों का मानना है कि शुरुआती दौर में तात्याजी
का तोपखाने में काम करने की वजह से उनका नाम तात्या टोपे हुआ।
बाजीरावजी के म्रुत्यु के पश्चात तात्याजीने नानासाहेब पेश्वा, रानी लक्ष्मीबाइ
और अनेक सेनानीओ के साथ काम किया। तात्याजी टोपे को उस समय का उतक्रुष्ट सेनापती माना
जाता है। महाराणा प्रताप के भांती वो उत्तर भारत, पश्चिमी भारत और मध्य भारत में अंग्रेजो
से लोहा लेते रहे। अंग्रेज उन्हें जागते हुए तो पकड नहीं पाइ। तब परोन के जंगल
में तात्या टोपे के साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेज़ों से मिल गया
और उसकी गद्दारी के कारण तात्या टोपे ८ अप्रैल, १८५९ ई. को सोते समय में पकड़ लिए गये।
ग्वालियर (म.प्र.) के पास शिवपुरी के न्यायालय में एक नाटक रचा
गया, जिसका परिणाम पहले से ही निश्चित था। सरकारी पक्ष ने जब उन्हें गद्दार कहा, तो
तात्या टोपे ने उच्च स्वर में कहा, ''मैं कभी अंग्रेजों की प्रजा या नौकर नहीं रहा,
तो मैं गद्दार कैसे हुआ ? मैं पेशवाओं का सेवक रहा हूँ। जब उन्होंने युद्ध छेड़ा, तो
मैंने एक पक्के सेवक की तरह उनका साथ दिया। मुझे अंग्रेजों के न्याय में विश्वास नहीं
है। या तो मुझे छोड़ दें या फिर युद्ध बन्दी की तरह तोप से उड़ा दें|
१८ अप्रैल को शाम पाँच बजे तात्या को अंग्रेज कंपनी की सुरक्षा में बाहर
लाया गया और हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फाँसी पर लटका दिया गया।
कहते हैं तात्या फाँसी के चबूतरे पर दृढ कदमों से ऊपर चढे और फाँसी के फंदे में स्वयं
अपना गला डाल दिया। इस प्रकार तात्या मध्यप्रदेश की मिट्टी का अंग बन गये।
कहा जाता है की राजा मानसिंह ने तांत्या टोपे के साथ कभी भी
विश्वासघात नहीं दिया और न ही उन्हें अंग्रेजों द्वारा कभी जागीर दी गई थी।
असली तात्या टोपे तो छद्मावेश में शत्रुओं से बचते हुए स्वतन्त्रता
संग्राम के कई वर्ष बाद तक जीवित रहे। ऐसा कहा जाता है कि १८६२ - १८८२ ई.
की अवधि में स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी तात्या टोपे 'नारायण स्वामी' के रूप में
गोकुलपुर, आगरा में स्थित सोमेश्वरनाथ के मन्दिर में कई महिने रहे
थे।
इतिहासकार श्रीनिवास बालासाहब हर्डीकर की पुस्तक 'तात्या टोपे'
के अनुसार तात्या १८६१ में काशी के खर्डेकर परिवार में अपनी चचेरी बहिन दुर्गाबाई के
विवाह में आये थे तथा १८६२ में अपने पिता के काशी में हुए अंतिम संस्कार में भी उपस्थित
थे।
उनके एक वंशज ने दावा किया है कि वे १ जनवरी, १८५९ को लड़ते हुए शहीद हुए थे। किताब 'टोपेज़ ऑपरेशन रेड
लोटस' के लेखक पराग टोपे जो तात्याजी टोपे के वंशज है उनके अनुसार- "शिवपुरी में १८ अप्रैल, १८५९ को तात्या को फ़ाँसी नहीं दी गयी
थी, बल्कि गुना ज़िले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेज़ों से लोहा लेते हुए १ जनवरी, १८५९ को तात्या टोपे शहीद हो गए थे।" पराग टोपे के अनुसार- "इसके बारे में अंग्रेज़ मेजर पैज़ेट की पत्नी लियोपोल्ड पैजेट की किताब 'ऐंड
कंटोनमेंट : ए जनरल ऑफ़ लाइफ़ इन इंडिया इन १८५७-१८५९' के परिशिष्ट में तात्या
टोपे के कपड़े और सफ़ेद घोड़े आदि का जिक्र किया गया है और कहा कि "हमें रिपोर्ट मिली
की तात्या टोपे मारे गए।"
अनेक ब्रिटिश अधिकारियों के पत्रों में यह लिखा है कि कथित फांसी
के बाद भी वे रामसिंह, जीलसिंह, रावसिंह जैसे नामों से घूमते मिले हैं। स्पष्ट है कि
इस बारे में अभी बहुत शोध की आवश्यकता है|
लेकिन जो भी हो “तात्या टोपे”
के नाम से ब्रिटीश सेना थर थर कांपती थी वो एक हकिकत थी जो इतिहास के पन्नो में अंकित
हो चूकी है।
तात्याजी टोपे को देशवासीओ की और से शत शत नमन।
~ गोपाल खेताणी
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